Skip to main content

परना परमधाम : एक परिचय

परना केन नदी के निकट विंध्याचल की सुरम्य घाटियों से घिरा हुआ एक भू-भाग है । ब्रह्ममुनियों के पाँव पड़ने के कारण यह स्थान पद्मावती पुरी के नाम से विख्यात हुआ। इसी प्रकार पौराणिक कथा है कि शिव-पार्वती एक बार भ्रमण करते हुए यहाँ से गुजरे, तब शिवजी ने इस भूमि को नमन किया । पार्वती जी ने इस भूमि की महत्ता शिवजी से जाननी चाही । शिवजी ने कहा, 'कलियुग में यहाँ इन्द्रावती देवी ब्रह्म रूप में आयेंगी । उनके साथ कई ब्रह्ममुनि यहाँ आकर निवास करेंगे, जिनकी भक्ति, साधना और तप के प्रभाव से यह पावन भूमि जन-जन के लिए मुक्तिद्वार के रूप में प्रतिष्ठित होगी।' इस प्रकार इस पावन भूमि के महत्व को जानते हुए महर्षि बृहस्पति ने बृहस्पति कुण्ड, सुतीक्ष्ण मुनि ने सारंग, अगस्त्य ऋषि ने सिद्धनाथ, माण्डूक्य ऋषि ने झोर आदि आश्रम स्थापित कर यहाँ पूर्णब्रह्म परमात्मा का स्मरण किया ।
कालांतर में इस अंचल के प्रतापी वीर छत्रसाल ने गोंड़ राजाओं को परास्त कर इस भू-भाग को अपने बुंदेलखण्ड राज्य में सम्मिलित किया । किलकिला नदी के किनारे पन्ना नाम से जो बस्ती (पुराना पन्ना) थी, उसी नाम से यह नगर पन्ना नगर कहलाया ।
किलकिला नदी के किनारे सन् 1683 में आम्रकुंजों के बीच महामति श्री प्राणनाथ ने अपना डेरा बनाया । कहते हैं, उस समय किलकिला नदी का जल विषयुक्त था गाँव वाले इस जल का कोई उपयोग न कर पाते तब महामति श्री प्राणनाथ जी ने अपने तप-बल से चरणामृत द्वारा इस जल का विष-प्रभाव दूर किया इस को संतों ने इसे गाया है -
विष की नदिया अमृत कीन्ही, सुख सबन पहुंचायो ।
आली मोहे प्राणनाथ मन भायो....

किलकिला नदी के ही किनारे एक सुरक्षित स्थान पर छत्रसाल ने अपने परिवार के निवास हेतु एक गढ़ी (छोटा महल) बनवाई थी। निकट ही एक सुंदर चौपड़ा था । छत्रसाल अपने सदगुरु महामति श्री प्राणनाथ को किलकिला नदी के आम्रकुंज घाट से पालकी में कंधा लगाकर ससम्मान अपनी गढ़ी के निकट चौपड़ा नामक स्थान पर लाये । कालांतर में यहाँ जो मंदिर बना वह चौपड़ा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह वही दिव्य स्थान  है जहाँ वीर छत्रसाल और उनकी धर्मपत्नी ने क्रमशः अपनी पाग और आँचल पाँवड़े के रूप में बिछाकर महामति प्राणनाथ की अगवानी की यहीं छत्रसाल दंपत्ति ने अपने सदगुरु में साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा के दर्शन किये । छत्रसाल की आत्मा हर्षित होकर गा उठी-

पूरन ब्रह्म ब्रह्म से न्यारे,.. सो घर आये हमारे ।
किलकिला नदी के किनारे सुंदर पर्वत मालाएँ, कलकल करते हुए झरने, कुण्ड, जल प्रपात और वनाच्छादित भूमि देखकर महामति श्री प्राणनाथ का यायावर मन यहीं बसने के लिए राजी हुआ । गुजरात से चलकर हजारों किलोमीटर की लंबी यात्रा के बाद महामति ने स्थायी निवास के लिए यही जगह चुनी। ब्रह्ममुनियों सहित अपने निवास के लिये भूमि स्वामित्व का एवं विश्व-जागनी-केन्द्र स्थापना का धर्मपताका सर्वप्रथम महामति श्री प्राणनाथ ने यहीं स्थापित किया । (यह झंडा आज भी खाले बाजार नामक स्थान में स्थापित है) यहाँ से पन्ना नामक भू-भाग परना परमधाम रूप में विकसित होना शुरू होता है । यहीं महामति श्री प्राणनाथ जी ने श्री पद्मावती पुरी की स्थापना की -
पद्मावती पुरी बसाई, पुनीत सुन्दर सुभग सुहाई ।
घर पर साथ सकल सुखदाई, परसपर आनंद हर बधाई ॥ (बीतक : श्री नवरंग स्वामी)

 पद्मावती पुरी छवि छाई, अति पावन पुरान मति गाई ।
जम्बू द्वीप पवित्र बखानो, तिनमें भरतखण्ड शुभ जानो ।। (मेहराज चरित्र : बख्शी हंसराज जी)
महामति श्री प्राणनाथ जिस परमधाम में विश्वास करते हैं, जिसका नित्य साक्षात्कार करते हैं, यहाँ स्वलीलाद्वैत है । अर्थात वहाँ दो का भाव बिल्कुल नहीं है। सब जगह एकाकार है । इसलिए महामति श्री प्राणनाथ के निवास स्थान का नामकरण हुआ 'परना' । अर्थात यहाँ पराया कोई नहीं है, सब अपने हैं, एक दिली है ।

इस पुण्य भूमि में रहते हुए महामति श्री प्राणनाथ के मुखारविंद से खुलासा, खिलवत, परिक्रमा, सागर, सिनगार, सिंधी, मारफत सागर नामक सात ग्रंथों का अवतरण हुआ । परिक्रमा यह महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें पहली बार पूर्णब्रह्म परमात्मा के दिव्य धाम का वर्णन हुआ है । इसके पूर्व संसार के किसी भी ग्रंथ में ऐसा कोई भी वर्णन कहीं भी देखने को नहीं मिलता है ।  महामति श्री प्राणनाथ जी ऐसा ही दिव्य धाम धरती पर बसाना चाहते हैं, जिसका प्रतीक है ये "परना-परमधाम" इस दिव्य धाम के निर्माण के लिए भी एक झण्डे की स्थापना हुई, जो ज्ञान का झण्डा, धर्म का झण्डा कहलाता है । (यह झण्डा श्री प्राणनाथ जी मंदिर के प्रांगण अर्थात् ब्रह्म चबूतरे के ऊपर दाहिनी ओर आज भी स्थापित है ।)
Banglaji darbar Mandir

सन् 1683 में महामति श्री प्राणनाथ द्वारा वर्तमान पन्ना नगर के आदि निर्माण के रूप "श्री बंगला जी मंदिर" की स्थापना हुई । समस्त साथियों ने अपने श्रमदान द्वारा इसे सभा भवन का रूप दिया। महामति श्री प्राणनाथ अपने 'सुन्दरसाथ को यहीं ब्रह्मवाणी का उपदेश प्रदान करते थे। यहां आठों याम भजन, कीर्तन और ब्रह्मवाणी की चर्चा हुआ करती थी महामति श्री प्राणनाथ जी यहीं निवास करते थे । उनका हर पल ब्रह्मचर्चा के लिए समर्पित था । इस स्थान के लिए कहा गया है - 

बंगला 'संसद गृह' प्रभु का, महामहिम गौरवशाली ।
होती भक्ति ज्ञान कथा नित, आठों याम पुण्यशाली ।।

महामति श्री प्राणनाथ जी के समय सन् 1688 में समस्त सुन्दरसाथ ने अपने श्रमदान द्वारा एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जिसे 'श्री गुम्मट जी' कहते हैं । यह श्री प्राणनाथ जी का साधना-स्थल है । वे यहीं बैठकर ब्रह्म-चिंतन में लीन रहते थे जिसे उन्होंने 'चितवनी' कहा है । 'बिंद में सिंघ समाया रे साधो' बूँद में सागर समा गया, अर्थात् श्री मेहेराज ठाकुर में पूर्णब्रह्म का अवतरण हुआ और वे महामति प्राणनाथ हुये । इसी प्रकार 'बेसुमार ल्याये सुमार में' अर्थात् ब्रह्मधाम की अकथनीय एवं अनन्त बातें पहली बार यहीं, इसी भूमि पर शब्दों में कही गईं। महामति श्री प्राणनाथ जी के इस चितवनी स्थल को, जहाँ वे ब्रह्मवत् होकर विद्यमान हैं 'मुक्तिपीठ' कहा जाता है इस स्थान की महिमा के लिये कहा गया है -

'इन देहरी की सब चूमसी खाक, सिरदार मेहेरबान दिल पाक ।'

महामति श्री प्राणनाथ जब पन्ना आये, तब अपने साथ अपने सदगुरु श्री निजानंद स्वामी धनी श्री देवचंद्र जी की गादी भी साथ लाए । वे नित्य प्रति उस गादी के माध्यम से अपने धनी, अपने प्रीतम, अपने सदगुरु का स्मरण किया करते थे । इस गादी की जहाँ स्थापना हुई वह दिव्य स्थान सदगुरु श्री देवचंद्र जी का मंदिर कहलाता है देश विदेश में कई जगह प्रणामी मंदिर हैं परंतु निजानंद सदगुरु श्री देवचंद्र जी का मंदिर एकमात्र पन्ना धाम में ही स्थापित है, इसलिए इस मंदिर का गहन आध्यात्मिक महत्व है । महामति श्री प्राणनाथ जी तो अपने सदगुरु के लिए बार-बार कहते हैं -

सो संग कैसे छोड़िए, जो सांधे हैं सतगुर ।
उड़ाए सबै अंतर, बताए दियो निज घर ।
अपनी यात्राओं के दौरान महामति प्राणनाथ ने देश के विभिन्न राजाओं का धर्मरक्षा के लिए आह्वान किया। तत्कालीन बादशाह औरंगजेब के डर से कोई धर्मपथ पर आगे नहीं आ सका, तब छत्रसाल साहस और वीरता का परिचय देते हुये अधर्म के विरुद्ध लड़ने के लिये तैयार हुये - 
बात ने सुनी रे बुंदेले छत्रसाल ने आगे आए खड़ा ले तलवार ।
अपनी यात्राओं के दौरान महामति प्राणनाथ ने देश के विभिन्न राजाओं का धर्मरक्षा के लिए आह्वान किया। तत्कालीन बादशाह औरंगजेब के डर से कोई धर्मपथ पर आगे नहीं आ सका, तब छत्रसाल साहस और वीरता का परिचय देते हुये अधर्म के विरुद्ध लड़ने के लिये तैयार हुये - 

बात ने सुनी रे बुंदेले छत्रसाल ने आगे आए खड़ा ले तलवार ।

ऐसे समर्पित योद्धा पर महामति श्री प्राणनाथ की असीम कृपा हुई । विजयादशमी के दिन जिस स्थान पर महामति श्री प्राणनाथ जी ने महाराजा छत्रसाल जी को तलवार भेंट कर विजय का आशीर्वाद दिया, वह ऐतिहासिक स्थल खेजड़ा मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है । इसी स्थान पर छत्रसाल जी को महामति श्री प्राणनाथ जी ने हीरे का वरदान दिया था, जिसके लिये ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध हैं -

त्यों ही प्राणनाथ प्रभु आए, दिल के कुल संदेह मिटाए ।
उन ऐसो कछु ज्ञान बखानो, अपनो करि जाते जग जानो ॥ 
करो राज छत्रसाल महीं को, रन में होय सदा जय टीको ।
यह महि तुम्हें दयी नूरानी, जहां प्रगटि हीरन की खानी ॥ (छत्रप्रकाश)