श्री निजानंद संप्रदाय - (श्रीकृष्ण प्रणामी धर्म)
श्री निजानंद संप्रदाय - (श्रीकृष्ण प्रणामी धर्म)

धर्मप्रेमी सज्जनो,
सृष्टि के प्रारंभ से ही मनुष्य में यह जानने की जिज्ञासा रही है कि में कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? इस सृष्टि का निर्माता कौन है ? वह सच्चिदानंद परब्रह्म कहाँ है ? कैसा है ? और वह कैसे प्राप्त होता है ? मनीषी जनों ने इन प्रश्नों का यथावत् जबाव पाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु तारतम ज्ञान के अभाव में किसी को भी उसकी प्राप्ति का आँखों देखा सही उत्तर न मिल सका।
इस तारतम ज्ञान (ब्रह्मवाणी) को लाने वाले पूर्णब्रह्म स्वरूप श्री प्राणनाथ जी हैं जिन्होंने श्री मेहराज ठाकुर के कलेवर में विराजमान होकर लीला की । पुराण संहिता में इस संबंध में कहा गया है -
सुन्दरी च इन्दिरा नामाभ्यां चन्द्रसूर्ययोः । मायान्धकार विनाशाय भविष्यतः कलौयुगे ।।
अर्थात् कलियुग में माया रूपी अज्ञानांधकार को दूर करने के लिये दिव्य परमधाम की दो आत्मायें सुन्दरी (सुन्दरबाई-श्यामाजी) और इन्दिरा (इन्द्रावती) दो शरीरों को धारण करेंगी, जिनके कार्य क्रमश: चन्द्र और सूर्य के प्रकाश रूप होंगे । इन दोनों कलेवरों में परब्रह्म विराजमान होकर लीला करेंगे । ये ही दो महाप्रभु क्रमश: धनी श्री देवचन्द्र जी (1581-1655 ई.) और महाप्रभु श्री मेहराज ठाकुर (1618-1694 ई.) पूर्णब्रह्म के अवतार हुए । धर्मग्रंथों में इन्हें ही 'बुद्धावतार'और 'विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक अवतार'कहा गया है। बुद्धगीता में कहा गया है -
अक्षरातीत एषो वे पुरुषो बुद्ध उच्यते। तेजोमयादिरूपश्च तस्यावतार उच्यते ।
ये विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक स्वरूप श्री प्राणनाथ जी (श्री मेहराज ठाकुर) ही उस तेजोमय उत्तम पुरुष अक्षरातीत के प्रगट स्वरूप हैं । प्राणनाथ किसी मानव शरीर का नाम नहीं है, अपितु सच्चिदानंद परब्रह्म को ही प्राणपति (प्राणनाथ) कहते हैं “तुम हो एक अगोचर सबके प्राणपति ।”
जब श्री मेहराज के देह में अक्षरातीत परब्रहा विराजमान हो गये, तो इन्हें ही प्राणनाथ कहा गया । इस संबंध में भविष्योत्तर पुराण अध्याय 72 ब्रह्मखण्ड में कहा गया है कि -
विक्रमस्य गतेऽब्दे सप्तदशाष्टत्रिंश यदा । तदायं सच्चिदानंदो हि अक्षरात्परत: पर: ॥
भारते च इन्दिरायां स बुद्ध आविर्भविष्यति । स बुद्ध कल्किरूपेण क्षात्रधर्मेण तत्पर: ।
चित्रकूटे वने रम्ये विजयाभिनन्दनो भवेत् ॥
अर्थात् विक्रम संवत् 1738 में (संवत 1735 से उदयमान) अक्षर से परे वह सच्चिदानंद परब्रह्म भारत वर्ष में परमधाम की श्री इन्द्रावती जी की आत्मा में श्री विजयाभिनन्द बुद्धनिष्कलंक स्वरूप में चित्रकूट के रमणीय वन (श्री 5 पद्मावतीपुरी) पन्ना विंध्याचल में प्रगट होंगे । सुन्दरी तंत्र में कहा गया है -
पद्मावती केन शरदे विन्ध्यपृष्ठे विराजिता । इन्दिरा नाम सा देवी भविष्यति कलौ युगे ।।
अर्थात् पद्मावती (किलकिला नदी और केन नदी के मध्य) विन्ध्याचल की धरती पर इन्द्रावती की आत्ना में परब्रह्म प्रकट होकर लीला करेंगे -
नदी किलकिला तीर पे, उतरे परमहंस आए । तिनमें सिरदार अक्षरातीत, देख अपना ठौर सुख पाए ।।
महाराजा छत्रसाल जी ने श्री प्राणनाथ जी को पूर्णब्रह्म के रूप में पहचाना तथा महारानियों समेत स्परिवारर उनकी आरती उतारी । "बीतक" ग्रंथ की निम्नांकित चौपाइयाँ देखें -
चौपड़े की हवेली मिने, तहाँ पधराये श्री राज । चले आप सुखपाल ले, काँध पर कुँवर महाराज ।।
साथ समस्त के बीच में, जुगल धनी बैठाए । कही तुम साक्षात अक्षरातीत हो, हम चीन्हे तुम्हें बनाए ।।
श्री ठकुरानी जी संग ले, पधारे मेरे घर । धनी बिना तुम्हें और जो देखे, सो नहीं मिसल मातबर ।।
यह वही पूर्णब्रह्म का स्वरूप है, जिसके लिये दुनिया युगों-युगों से बाट देख रही थी । प्रगटे पूर्णब्रह्म सकल में, ब्रह्मसृष्टि सिरदार ।
ईश्वरी सृष्टि और जीव की, सब आए करो दीदार ।। सुनियो दुनिया आखरी, भाग बहे हैं तुम ।
जो कबू कानों ना सुनी, सो करो दीदार खसम ।। कई देव दानव हो गये, कई तीर्थकर अवतार ।
किन सपनों ना श्रवनों, सो इत मिल्या नर नार ।।
श्री प्राणनाथ जी वे ही अक्षरातीत परब्रह्म हैं, जिनके विषय में मुण्डकोपनिषद् में 'अक्षरात्परतः परः'और गीता 15-17 में 'उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः'कहा गया है । इन्हीं परब्रह्म के विषय में रामायण के बालकाण्ड में कहा गया हैं ।
नेति नेति जेहि वेद निरूपा, निजानंद निरुपाधि अनूपा ।
शंभु विरंचि विष्णु भगवाना, उपजहिं जासु अंश ते नाना ।।
देवी भागवत 4/19/2 में कहा गया है -
अहं ब्रह्मा अहं विष्णुः शिवोहमिति मोहिता । न जानिमो वयं धातः परं वस्तु सनातनम् ॥
अर्थात् मैं ब्रह्मा हूँ, मैं विष्णु हूँ तथा में शिव हूँ, इस प्रकार हम लोग माया से मोहित हो रहे हैं । उस सनातन सच्चिदानंद परब्रह्म को हम नहीं जानते हैं ।
संख्या चेद्रजसामस्ति न विश्वानां कदाचन । तथा ब्रह्मा विष्णु शिवादीनां संख्या न विद्यते ।।
अर्थात् धूल के कणों की संख्या कदाचित गिनी जा सकती है, किन्तु असंख्य ब्रह्मांडों और उनमें रहने वाले ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवादि देवों की संख्या को नहीं गिना जा सकता है ।
यं ब्रह्मावरुणेन्द्र रूद्र मरुतस्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै: । वेदैः सांगपदक्रमोपनिषदैः गायन्ति यं सामगाः ।।
ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो । यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः ।।
जिस सच्चिदानंद परब्रह्म की ब्रह्मा, वरुण, रुद्र, इन्द्र, वायु इत्यादि देवगण दिव्य स्तुतियों से स्तवन करते हैं, सामवेद के गायक जिसका गायन करते हैं, योगी लोग ध्यान में स्थित होकर जिसका साक्षात्कार करते हैं, जिसका अंत न तो देवता जानते हैं और न असुर, उस अक्षरातीत सच्चिदानंद परब्रह्म को प्रणाम है ।
ऐतरेयोपनिषद् में कहा गया है - 'एकमेवाद्वितीयम् अर्थात् परब्रह्म एक ही है और उसके समान अन्य कोई नहीं है ।
श्री प्राणनाथ जी वही अक्षरातीत हैं जिनके प्रगटन के संबंध में पुराण संहिता में कहा गया है -
कलिः धन्यः कलिः धन्यः कलिः धन्यः महेश्वरः । यत्र ब्रह्मप्रियाणाम् च वासना समुपाविशन् ।।
यह अट्ठाईसवां कलियुग धन्य है, जिसमें परब्रह्म श्री प्राणनाथ जी अपनी ब्रह्मप्रियाओं के साथ प्रगट हुये हैं ।
उपरोक्त कथन जिन श्री प्राणनाथ जी के विषय में कहे गये हैं उनका प्रगटन आश्विन कृष्ण चतुर्दशी वि. सं. 1675 को जामनगर (गुजरात) में हुआ था ।
यह पन्ना नगर श्री प्राणनाथ जी की प्रेरणा से आज से 332 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ है । श्री प्राणनाथ जी की वाणी संसार के सभी लोगों को एक सत्य की राह पर चलने के लिये प्रेरित करती है । उनके निम्नांकित वचन देखें :-
जो कुछ कह्या कतेब ने, सोई कह्या वेद । दोऊं वंदे एक साहब के, पर लड़त विना पाये भेद ।।
पारब्रह्म तो पूरन एक है, ए तो अनेक परमेश्वर कहावें । अनेक पंथ जुदे जुदे, और सब कोई सास्त्र बोलावें ।।
पार पुरुष पिया एक है, नाहिन दूजा कोए । और नार सब माया, यामें भी विध दोए ।।
अतः सभी धर्मप्रेमी सज्जनों से निवेदन है कि पूर्णब्रह्म श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप को पहिचान कर अपने जीवन को सार्थक बनायें ।
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श्री निजानन्द सम्प्रदाय – श्री कृष्ण प्रणामी धर्म का संक्षिप्त इतिहास
उमरकोट (मारवाड़) में अवतरित श्री देवचन्द्र जी (1581-1655) ने उस समय प्रचलित सभी धार्मिक मतों का विस्तृत अध्ययन किया एवं विभिन्न साधना पद्धतियों को अपनाते और छोड़ते हुए सत्य की खोज की ।
जामनगर में आपने 14 वर्षों तक निष्ठापूर्वक श्री मद्भागवत महाग्रंथ का चिंतन-मनन किया । अंत में आपको पराप्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा पूर्णब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण जी के साक्षात दर्शन हुये और महत्वपूर्ण वार्ता उपरांत वे श्री देवचन्द्र जी के अंतःकरण में प्रविष्ट हुए । तत्पश्चात श्री देवचन्द्र जी “निजानंद स्वामी”कहलाये । क्योंकि आपने निजबोध द्वारा पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण को पाया था, इसलिए आपके अनन्य परा प्रेमलक्षणा भक्ति-मार्ग का नामकरण हुआ- "निजानंद संप्रदाय', जो कालांतर में श्री कृष्ण प्रणामी धर्म कहलाया ।
जामनगर गुजरात में श्री मेहराज ठाकुर का प्राकट्य सन् 1618 में हुआ । वे किशोर अवस्था में ही श्री निजानंद स्वामी के अनन्य शिष्य हुए । निजानंद स्वामी से दीक्षा लेने के पश्चात सतत् साधना के फलस्वरूप आपको भी निजबोध हुआ । निजानंद सद्गुरु जिनके अंतःकरण में स्वयं अक्षरातीत श्री कृष्ण विराजमान थे, ने सन् 1655 ई. में अपना नश्वर शरीर छोड़ा और वे सूक्ष्म रूप में पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण की समस्त शक्तियों सहित श्री मेहराज ठाकुर के अंतःकरण में समाहित हुए । महामति प्राणनाथ ने अपने धर्म जागरण अभियान के अंतर्गत देश-विदेश की यात्रायें करते हुये ब्रह्ममुनियों को निजबोध कराकर जागृत किया । आत्म जागृति की अलख जगाते हुए आप अपने पाँच हजार साथियों के साथ बुंदेलखण्ड, पन्ना पधारे । यहाँ नरवीर केशरी छत्रसाल आपके ब्रह्मबोध से प्रभावित होकर जागृत हुये और आपके शिष्य बने ।
बुंदेलखण्ड पन्ना में अपने सुन्दरसाथ सहित आप यहीं बस गये। सन् 1694 ई. में श्रावण शुक्ल चतुर्थी को आपने अपने आप को ब्रह्मलीन किया। इस प्रकार मेहराज ठाकुर, महामति प्राणनाथ होकर पूर्णब्रह्म परमात्ना के रूप में सबके प्राणों के नाथ अर्थात प्राणनाथ कहलाये । उनके जीवन काल में ही श्री बंगला जी एवं श्री गुम्मट जी नामक प्रमुख दो मंदिरों का निर्माण हो चुका था, जिनमें वे अपने साथ आये सुंदरसाथ सहित छत्रसाल एवं राज्य की प्रजा को धर्म उपदेश दिया करते थे । महामति श्री प्राणनाथ साक्षात पूर्णब्रह्म स्वरूप है । अत: यह स्थान निजधाम कहलाया । उनके इस दिव्य धाम में बस्ने वाले लोग धामी कहलाए । तभी से यह स्थान 'मुक्तिपीठ' के रूप में विख्यात है ।निजानंद स्वामी से आरंभ होकर पराप्रेम लक्षणा भक्ति की यह धारा “निजानंद संप्रदाय” या “श्री कृष्ण प्रणामी धर्म” के रूप में महामति प्राणनाथ द्वारा सारे विश्व में प्रवाहित हुई । पन्ना (बुन्देलखंड) इस धारा का प्रमुख केंद्र बना । यहां महामति प्राणनाथ जी के मुखारविंद से जोश द्वारा अवतरित ब्रह्मवाणी की 18758 चौपाइयों का ग्रंथ “तारतम सागर” संकलित हुआ ।
निजानंद दर्शन में श्री कृष्ण अनादि अक्षरातीत पूर्णब्रह्म स्वरूप में आराध्य हैं जिन्हें सखीभाव के साथ पतिव्रत्य धर्म के अनुरूप पराप्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा अपने हृदय में स्थापित करने का संकल्प है । इसी संकल्प का एक व्यावहारिक रूप है 'अष्ट प्रहर' की सेवा पूजा । यहाँ सेवा शब्द महत्वपूर्ण है, जिसमें यह विश्वास निहित है कि यहाँ पूर्णब्रह्म परमात्मा साक्षात विद्यमान हैं, जिनकी नित्य प्रति सेवा के साथ-साथ पूजा भी की जाती है । इस प्रकार निजानंद सद्गुरु श्री देवचंद्र जी द्वारा संस्थापित एवं महामति श्री प्राणनाथ द्वारा पूर्णरूप से विवेचित निजानंद संप्रदाय, प्रणामी धर्म के रूप में पराप्रेम लक्षणा भक्ति की अविरल धारा में पूरे विश्व को आप्लावित कर रहा है । इस समय विश्व भर में लगभग पाँच सौ श्री कृष्ण प्रणामी मंदिर और एक करोड़ से ज्यादा अनुयायी हैं । यह एक अवसर है, पूर्णब्रह्म की पराप्रेम लक्षणा भक्ति में अपने अहं को विसर्जित कर देने का । जो इस अवसर को चूक जाते हैं, वे लौट कर फिर जगत में जन्म लेते हैं । इस अमूल्य अवसर के महत्व को जो लोग जान लेते हैं, वे अपना जीवन सार्थक करते हुए पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के परमधाम को प्राप्त होते हैं । महामति श्री प्राणनाथ जी इस जगत में एक मात्र प्रेम को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं इसलिए सभी सुधी जनों से उनका आग्रह है कि तमाम कर्मकाण्डों को छोड़कर, सच्चिदानंद स्वरूप अनादि अक्षरातीत श्री कृष्ण से प्रेम करते हुए परमपद को प्राप्त करें । वे कहते हैं -
'बड़ी मत सो कहिये ताये, श्री कृष्ण जी सों प्रेम उपजाये ।'
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संलकन कर्ता : पुजारी श्री प्रशांत शर्मा जी