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14. श्री गोपालदास जी कामदार

श्री गोपालदास जी कामदार का शुभ-जन्म वि.स. 1858 में श्री पदमावतीपुरी धाम में हुआ था। आपके पूज्य पिता जी का नाम श्री श्यामलाल तथा परम साध्वी माता जी का नाम श्री मती पानकुंवर था। आप स्वभाव से बड़े ही विघा-व्यसनी थें। आपका हृदय परम-उदार था और पर दुःख के लिए सदा आतुर रहता था। आप आद्वितीय वैध थे, आपका नाड़ी ज्ञान बहुत आलौकिक था। आप प्रायः नाड़ी में सूत बाँधकर बहुत दूर स्थित हो मरीज के रोग का सही निदान किया करते थे। आपकी प्रख्याती सुनकर एक बार स्थानीय राजमहल में बुलवाया गया और तोते की टाँग में सूत बाँधकर आपकी परीक्षा ली गई। आपके अलौकिक नाड़ी विज्ञान से परीक्षक शरमाये और आपको राज सम्मान पदान किया गया। आपका कवि हृदय बड़ा ही भावना प्रधान था, आपके द्वारा रचित एक छोटा'भजन लावनी ग्रंथ' तथा एक बहुत महात्वपूर्ण 'विष-उद्वार' नामक ग्रंथ उपलब्ध है जिसकी कुछ बानगी निम्न रूप से प्रसिद्ध है---


डूब मरे कै सती-जती (छन्द लावनी)

बिना नीर का समुद्र गहरा, जल नहीं उसमें एक रती। भरा अथाह थाह नहि पाय, डूब मरे कई सती यती ।।

ऊँचा नीचा भरा थार बिन, चारो तरफों घेर लिया। वेद शास्त्र क`मत से कहता, झूठ छनद नहिं कथन किया ।।

मगर मच्छ विकाल बड़े है, जीव जन्तु सब निगल गया । भंवर गंभीर अथीर अनेकों, लहर जाय आकाश छिया ।।

दृष्टि कूट यह नहिं समझना सत्य वचन प्रमाण दिया । खोज भागवत में यह लीजो, होवे तुमरे बुद्धि हिया ।।

क्रो विचार बात है भारी, जो तुमरे उर होय मती । भरा अथाह थाह नहि पाये, डूब मरे कै सती-यती ।।


(2)


तरा एक अंडा सागर में, युग हजार कै वर्ष रहा । फूटा अंडा उसमें प्रगटा, अग्नि-नीर अरू गंध बहा ।।

जल तो प्रगट नहीं गुणौजन, अंडा तरा काहे में कहा। अंड कहां से आया उसमें, चेतन किसका हुआ सहा।

जब नहि जल में आया अंडा, बता कौन सी ठौर ढहा। प्रथम रूप उसका कहु कैसा, पूछत दिल में बड़ी चहा ।।

खोजी बनके पूछत तुमसे, बाद करन की नहीं गति । भरा अथाह थाह नहि पाये, डूब मरे कै सती-यती ।।


(3)


इंड स्वरूप कहो, है कैसा, इंड पार पुनि कौन रहै। नर्क-स्वर्ग कहो कौन भोगता, कौन मुक्ति की राह लहै ।।

है चौथा गुण नहीं तीन से, लोक पंद्रहवा नाहि कहै। छटठा तत्व नहीं पाँच से, एक प्रश्न को चित्त चहै ।।

त्रिगुण तत्व औ लोक चौदहों, महाप्रलय में नासत है। ब्रम्ह रहत तब कहां बताओ, ओही प्राणी राह गहै।।

कहां विष्णु ब्रम्हा जी रहतें, कहां रहत कैलाश पती। भरा अथाह थाह नहि पाये, डूब मरे कै सती-यती ।।


(4)


कोई कहै सब घट-घट में, ब्रम्ह की शक्ति आय बसी, काल जात क्या ब्रम्ह भवन में ऐसी सुनके होत हंसी।

कोई कहै क्षीर सागर में, जहां न पहुँचे सूर-शशी, ब्रम्ह अक्षयवट पै तब रहता, जहां न माया नेक धसी।

चौदह लोक लाश जब होवें, काहें पै तब सिन्धु लसी, प्रश्न खोल के भेद बतावै, सो जग होवै बहुत यशी।

जो कोई इसका भेद बतावै, ताके हृदय ज्ञान अती। भरा अथाह थाह नहि पाये, डूब मरे कै सती -यती ।।


(5)


आतम इसमें कौन कहो, पर आतम इसकी कोन भई, ब्रम्ह जीव का भेद कौन है, कैसी तुमने समझ लई।

क्षर-अक्षर पार अक्षरातीत, कहते सब कोई साक्षि दई, कौन रूप व्यवहार है कैसा, बसै का आनन्द भई,

गोपालदास कहे छन्द लावनी, देखि भागवत राह नई। हुआ ज्ञान हृदय में जबसे, कलिमल की सब सेन हती ।।

भरा अथाह थाह नहि पाये, डूब मरे कै समी-यती ।।


श्री गोपालदास जी बड़े ही नामी वैघ थे। मरीज के मर्ज का ज्ञान वे मरीज के चेहरे को देखकर ही उसका निदान समझ लेते थे। इसी प्रकार भंयकर से भयंकर विषैले जीव-जन्तु से पीड़ित मरीज को उसका चेहरा उसकी अंग-भंगिमायें तथा उसकी चाल-ढाल और बोल-चाल से पहिचानने में कोई कठिनाई न होती थी। और उपचार के पश्चात मरीज को पर्ण रूप से स्वस्थ हँसतें हुये देखकर हार्दिक प्रसन्नता होती थी।


जीव-जन्तुओं के विषों की उपचार प्रक्रिया का पूर्ण ज्ञान जिस प्रकार उन्हें इष्ट प्रदत्त था, उसी प्रकार अनेक प्रकार की विषैली वनस्पतियों के भंयकर विष तथा उनके उपचार की पूरी जानकारी भी उन्हें प्राप्त थी। जन-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी कति वाणी "विषोद्वार" नामक एक लघु ग्रन्थ भी लिखा है। ग्रन्थ में अनेक विष और उनके उपचारों का बड़ा सरल विवरण प्रस्तुत किया गया है, जो परम उपयोगी है। उदाहरणार्थ यहाँ कुछ बानगी प्रस्तुत है--


वन्दा श्री राधा विनती सुन मेरी, अल्प बुद्ध और विघा थोरी। पाट देख मैं ग्रन्थ बखानों, शुद्ध अशुद्ध कछु न जानो ।।

कहतन कछु भूल परजाई, माफ कीजियों राधामाई। पहले बरनन करत दिनाई, फिर कैहो विष उपभाई ।।


अथ दिनाई परीक्षा निदान औषद लिख्यतें--


जाके पेट दिनाई होई, ताकि मूत्र परीक्षा सोई। इहि विध बैद परीक्षा लेई, जेसो देखे सो कहि देई ।।

माटी को बासन ले आवै, तामें पात अंड क नावै। तापर रोगी मूते प्रातः प्रहर पछाड़े देखे पात ।।


इस प्रकार बाघ, सूकर, बार, की परीक्षा और उसके उपचार की विधियों को बड़ा सरल उल्लेख है तथा अनेक प्रकार दिनाइयों का उपचार सहित विस्तृत वर्णन है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है, यदि जन-जन हिताय, इसका प्रकाशन किया जाए तो यह ग्रन्थ बड़ा लोकोपकारी सिद्ध हो सकता है। आपने वि.स. 1946 में कामदारी का पद संभाला था, और वि.स. 1957 में शतायु होकर परमधाम वास हुआ।  - संकलन कर्ता : पुजारी श्री प्रशांत शर्मा, धाम पन्ना.